Monday 28 November 2011

दरमियाने -ये - मंजिल
न दर्द -ओ -गम , न शिकवा , न इजतराब ओ - जुनू
मोहब्बते थी मगर कोई यादगार न थी
वक़्त का दरिया कुछ येसी रफ़्तार से चलता है की वो वो अपने आगे निकल जाने का एहसास ही नहीं पता चलने देता है | पहली सांस से जो सिलसिला शुरू होता है वो अपनी आखिरी दम तक चलता है या बीच रास्ते में कोई ठोकर लगने से पता चलता है की शायद यहाँ कम हो गयी या मंजिल ही आ गयी ?? लेकिन मंजिल है कहाँ ये तो पता नहीं है बस सफ़र पे चल दिए और मदहोशी के आलम में यह भी भूल गए की मंजिल का इल्म तो है जायेगे कहाँ ? ये मदहोशी है क्या जो हम इतने बदगुमान हो गए | ये है हमारी जिम्मेदारिया हमारे अपनों की जिसने कभी ये इल्म होने ही नहीं दिया की .....ये जिन्दगी कुछ तुम्हारी भी है इसके ऊपर तुम्हारा भी कुछ हक़ बनता है | कुछ लम्हे है जो सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे हो सकते थे लेकिन तुमने ये हक भी जिन्दगी को नहीं दिया | अब अगर वो तुमसे सवाल करती है तो क्या जवाब है तुम्हारे पास |
आज जब वक़्त सामने है तो याद आता है की हम भूल ही गए थे की वक़्त भी कभी रुकता नहीं और शायद दोबारा मौका देता है और तब दूर से खड़ा होकर देखकर मुस्कुराता है और कहता है की जब हम थे तुमने न कदर की आज तुमने मुझे पुकारा तो में नहीं तुम्हारे साथ हूँ | इसी को कहते है वक़्त का तकाजा |
लोगो की महफ़िल , ह्मराजो का साथ मस्रोफियत का आलम था कभी ये खायलो में भी ये गुमान न था की ये सब तो वक़्त के साथ बदल जायेगा और जो आपके है उनसे एक फासला हो जायेगा | ये दरमियान भी होते है अपनों के बीच ............पता न था | वो वक़्त एक बहार के झोके की तरह आया और गया भी क्योकि बहार के बाद ही तो खिजां आती है |
दिल बना दोस्त तो क्या क्या सितम उसने किये
हम भी दाना थे निभाते रहे नादाँ के साथ
ज़माने को समझना है तो यहाँ के दस्तूर के मुताबिक ही चलना होता है | यकीन और मोहब्बत से जरा परहेज कर लीजिये क्योकि इन पे यकीन करना ही हिमाकत है | जिन्दगी आपको सारे रंग दिखा देती है और आपका अपना रंग बदरंग हो जाता है जब अपने ही बेगाने से नजर आने लगते है | आप बस अपने को अपना सबसे बड़ा हमदर्द समझिये क्योकि आपकी अपनी अन्दूरी ताकत ही आपका वजूद को खड़ा करने में आपकी सबसे बड़ी ताकत होगी | ये जानते तो सब लोग है लेकिन समझते जरा देर से है | लोग आपको अपनी रूहानियत तक पहुँचने नहीं देते है शायद लोगो को दूसरो का मसीहा बनने का शौक होता है | क्योकि अगर आप किसी के सामने ग़मगीन नजर नहीं आते है तो कोई आपकी तकलीफ नहीं समझता है और वो आपकी ख़ुशी बर्दाश्त नहीं कर पता है | ज़माने का यही एक और चेहरा की हम अपने गम से नहीं आपकी ख़ुशी से परेशांन हो जाते है |
'' लोग अपने से होते है पर अपने नहीं होते ''
इसमें मलाल की कोई बात नहीं है ये तो दुनिया है यहाँ हर किस्म के लोग होते है कुछ रिश्तो के लिए ईमान्दार और कुछ बेदर्द किस्म के तो क्या हुआ हम तनहा ही तो आये थे इस ज़माने में फिर किसी हमसफ़र की तलाश क्यों ? वो उपरवाला तो हमेशा हम पे अपनी निगाह रखता है बस और इससे बढकर क्या चाहिए | हर शक्स जुदा है एक दुसरे से तो उसके खयालात भी मुख्त्क्लीफ़ होगे तो जाहिर है बीच में कुछ दरमियान होगे | बस इतना जान लीजिये की ये सफ़र आपका है और आपको ही निभाना है तो बस हसी ख़ुशी सफ़र काटिए | हमको रोज उपरवाले का शुक्रिया अदा करना चाहिए की हम लोग बहुत लोगो से बेहतर हालत में जिन्दगी गुजार रहे है | ये वजह
भी खुश रहने के लिए कम नहीं है |
देखनेवालो मेरी ख़ामोशी -या लब न देख
आँखों ही आँखों में फ़साना कह देता हूँ में



Saturday 26 November 2011

adhoora purab - adhoora paschim

अधूरा पूरब - अधूरा पश्चिम
एक अन्धकार भरी रात में एक युवक जंगल में राह भटक गया लेकिन वो रुका नहीं चलता रहा काफी दूर उसे कुछ प्रकाश दिखाई दिया धीरे धीरे वो वहां पंहुचा तो एक कुटिया दिखाई दी उसने दरवाजे पे खटखटाया तो अंदर से आवाज आई की कौन है युवक ने कहा की ' मै ' हूँ तो अंदर फिर पूछा की मै कौन युवक ने फिर कहा की मै हूँ इतने में एक साधू दरवाजा खोलकर बाहर आया उसने कहा युवक से कहा की तुम कौन हो उसने कहा की मै राह भटका हुआ एक राहगीर हूँ साधू ने कहा की राहगीर तो हम सब है और तुम तो सही अर्थ में राह भूल गए ही तभी तो अपने को ही 'मै ' कह रहे हो जबकि ' मै ' कहने का अधिकार केवल परमात्मा को ही है | इस बात को सुनकर वो युवक बोला की क्या आप मुझे अपना शिष्य बनायेगे ? साधू ने हस कर कहा , की ठीक है लेकिन यहाँ तुम्हे क्या मिलेगा ? युवक बोला शायद जीवन का कुछ अनुभव ही मिलेगा | साधू ने कहा की ठीक है जैसे तुम्हारी इच्छा | इसके बाद वो युवक साधू से बोला की मुझमे बहुत अवगुण है मै आपको पहले ही बता देता हूँ | साधू ने बड़ी सरलता से कहा की ठीक है परन्तु मेरे सामने कुछ मत करना | इसके कुछ दिनों के बाद एक दिन साधू ने युवक से पूछा की तुम्हारे अवगुणों का क्या हाल है ? युवक ने उत्तर दिया की जब मै कोई गलत काम करने लगता हूँ आप की शक्ल मेरे सामने आ जाती है और मै रुक जाता हूँ | इस प्रकार धीरे - धीरे वो युवक सुधरने लगा और एक दिन साधू ने उससे कहा की अब तुम अपने जीवन में सही मार्ग पे जा सकते हो यैसा मुझे प्रतीत हो रहा है | तो ये बात है एक युवक के बारे में जो जीवन में भटक कर सही दिशा पे आ गया क्योकि उसको कोई सही मार्ग दर्शक मिल गया और साधू के ज्ञान ने उसका जीवन ही बदल दिया | साधू ने युवक से कहा की तुममे अवगुण नहीं थे तुम बस अपने कर्तव्य के प्रति सचेत नहीं थे | तुम दिशाहीन थे मैंने तो बस तुम्हे एक मार्ग दिखा | इस घटना से ये पता चलता है की अगर जीवन में कोई कभी भटक जाए तो उसे एकदम नकार नहीं देना चाहिए वरन उसको मानसिक रूप से सहारा देकर समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान दिलवाना चाहिए |
यही बात वर्तमान परिवेश में लोग भूलते जा रहे है की मानव जीवन अनमोल है कोई अकारण ही जनम नहीं लेता है सब किसी न किसी उद्देश्य से इस धरती पे आये है कोई सही कार्य के लिया कोई गलत के लिया क्योकि संसार का संतुलन भी यैसे ही बना है | क्योकि मनुष्य जीवन सकारात्मक और नकारात्मक
योग की संधि से ही बना है | ये जीवन एक पवित्र यात्रा है ........... पवित्र इसलिए क्योकि ये परमात्मा का ही अंश है हमारे भीतर जो हमको जीवन प्रदान करता है | लेकिन आज जो बड़ी समस्या है हमारे सामने वो है नयी पीढ़ी का अपना नैतिक मूल्यों का ना पहचानना या उनको अपनी जीवन शैली में ना उपयोग करना | ये एक तरह का असंतुलन जन्म ले रहा है जो भारतीय समाज के लिए बहुत घातक सिद्ध हो रहा है | यैसा क्यों हो रहा है कोई तो कारण है ही ? क्योकि जब तक कारण ना पता लगे
तो उसका निवारण कैसे संभव है | भारत सदा से ही एक संस्कृत प्रधान देश रहा है लेकिन गत कुछ वर्षो से हमारे रहन - सहन , शिक्षा , विचार में बहुत परिवर्तन आया है जिस के कारण हमारी युवा पीड़ी अपने संस्कारों को भूलती जा रही है और अगर हम धयान दे तो पायेगे की पशचमी सभ्यता का काफी प्रभाव दिखाई दे रहा है जो की हमारे संस्कारों से बहुत भिन्न है तो ये क्या है यही हमारी मूल समस्या है | हमारी शिक्षा में भी बहुत बदलाव आया है जिसके कारण हमारी शिक्षा आजीविका के लिए तो सम्पूर्ण है पर उसमे ज्ञान और भारतीय दर्शन की कमी है | हम अपने चौमुखी विकास से बंचित होते जा रहे है |
आकांक्षाये अनुचित नहीं है बल्कि गहरी आकांक्षाये स्वयं में परिवर्तन लाती है और स्वयं का निरक्षण परिवर्तन के लिए गहरी आकांशा पैदा करता है | सयंम चाहिए ........थोड़े समय में अधिक से अधिक पाने की लालसा हमको व्याकुल कर देती है और हम सही मार्ग से भटक जाते है| यही से असंतुलन की उत्पत्ति होती है | संतुलित व्यक्ति ही समाज में अपना सकारात्मक योगदान दे सकता है और एक शसक्त राष्ट्र की नीव बनाता है लेकिन आज तो परिवार का ही रूप छोटा होता जा रहा है क्योकि कर्मभूमि अलग है और जन्मभूमि कही और है | समय का आभाव होता जा रहा है लोग बहुत दूर दूर जा कर अपनी सुविधा के अनुसार काम करते है यैसे में पूरे परिवार को लेकर नहीं चल सकते है लेकिन इसका प्रभाव पूरे परिवार पे पड़ता है समय और सयम के अभाव में प्रेम ,आदर , समर्पण सारी भावनाए लुप्त होती जा रही है लेकिन इससे नयी पीड़ी एक मानसिक तनाव में रहती है जिसका असर उसके वयवहार पर साफ़ दिखाई देता है | मन से भारतीय और जीवन शैली से विदेशी तो यहाँ विचारो की संधि का सर्वथा आभाव बना रहता है | आवाशाक्ताये बढ़ाना तो बहुत सरल है फिर उसके लिए संसाधन भी जुटाना पड़ता है तो पति और पत्नी दोनों काम करते है यैसे में छोटे बच्चो का भविष्य बहुत चिंता का विषय बन जाता है | जिन बच्चो को परिवार का प्यार मिलना चाहिए वो घर में काम करने वाले सहायको के साथ बड़े होते है | छोटी छोटी कहानियो का स्थान कार्टून के काल्पनिक ,हिंसात्मक चरित्रों ने ले लिया है | कल्पनालोक से दूर एक यथार्थ के सच की दुनिया में उनका पालन पोषण होने लगता है | प्रेम की रस की धार वो नहीं जान पाते है |
ये एक बदलाव की आंधी है |लेकिन आंधी जब आती है तो वो अपने साथ धुल और एक तेज गति लाती है जो बहुत कुछ अपने साथ ले जाती है बसे बसाए घरो को उजाड़ देती है क्योकि आंधी का कोई निश्चित गंतव्य नहीं होता है लेकिन हम लोग जो अनुभव कर रही है वो है सांस्कृतिक आंधी जिसमे ममता ,आदर, प्रेम ,ज्ञान ,समभाव सब कुछ उड़ा जा रहा है ये कब और कैसे रुकेगी किसी को नहीं मालूम है |हम मूक दर्शक की भांति सब देख रहे है | इस समय मुझे महाकवि नीरज जी की वो पंक्ति याद आ रही है ...........
कारंवा गुजर गया गुबार देखते रहे ..
ये भी सच है की हम आर्थिक रूप से तो सशक्त हो रहे है पर सांस्कृतिक रूप से कंगाल हो रहे है | आज लोग धयान ,योग विपसना सब तरह की बातो का सहारा लेने लगे है | आत्म - परिवर्तन की बहुत आवशयकता है | जीवन उतना ही ऊंचा होता है जितना की गहरा हो | जो ऊंचा तो होना चाहते पर जीवन की गहराई नहीं समझना चाहते है उनका असफल होना सुनिश्चित होता है | स्मरण रहे की जीवन में बिना मूल्य के कुछ नहीं मिलता है | हम क्या करते है ये नहीं जरूरी है कैसे करते है ये बहुत जरूरी है | जो अपने जीवन में कुछ नहीं कर पाते है वो आलोचक बन जाते है | भागवत की ये पंक्ति शायद वर्तमान काल के लिए बिलकुल सही है ......
महा - महा यगीश भी माया के वश में हुए
जो रचती जड़ मात्र में खेल निराले नित नए
अर्थात .............माया को मैंने जीत लिया है ये कहने का दुसाहस कभी नहीं करना चाहिए क्योकि माया से तो ज्ञानी ,ध्यानी ,मुनीश्वर और सिद्ध भी नहीं बच पाए है क्योकि माया की मंत्रा से कोई नहीं बच सकता है | माया भी तो ईश्वर की बनायीं रचनाओं में से एक है | लेकिन ईश्वर ने मनुष्य को ही बुद्धि और विवेक दिया है की अपने निर्णय खुद करो और अपनी प्रज्ञा का सदोपयोग करो | अंत में यही एक बात आती है की आज के युवा न तो पूरी तरह से भारतीय हो पा रहे है और न पूर्ण रूप से पशिमी सभ्यता को अपना पा रहे और इसी का प्रभाव उनको एक त्रिशंकू की स्थिति में ले आया है | अपनी सोच को सयंम और समर्पण से जोड़ने की चेष्टा करे और उसकी संधि से जो भाव निकलेगा वह अलौकिक आनंदमय होगा | ये चिंतन और कर्म का उचित समय है | यही हमको हमारी जड़ो से अलग नहीं होने देगा क्योकि कितना भी बड़ा पेड़ हो जड़ो के बिना नहीं पनप सकता है | बस जड़ो को सींचो सारा पेड़ हरा भरा रहेगा | प्रकृति हमको बहुत सिखाती है | यही हमारी धरोहर है जिसे समय रहते ही बचाना है |

Wednesday 23 November 2011

भूले .......... जो हम नित्य करते है
हमारे जीवन की सबसे बड़ी भूल ये है की हम जो वास्तविकता है उसे स्वीकार नहीं करते है और जब स्वीकार ही नहीं करते है तो उसका सुधार कैसे करेगे | ये वास्तविकता क्या है ? ये हमारे जीवन के दुःख सुख और हमारी अपनी सोच जिसके ही कारण हम जाने अनजाने में इतनी भूले करते है की कुछ समय के बाद आप चाहे भी तो उसको सुधार नहीं सकते है . | ये हमारे ही द्वारा की गयी छोटी छोटी गलतियों के बड़े बड़े परिणाम होते है | तब हम भाग्य को दोष देते है किन्तु ये बिलकुल अनुचित है |हम अपने ही कर्मो से अपना भाग्य बनाते है और बिगाड़ते है या ये भी कह सकते है की हमारा प्रारब्ध ही यैसा है लेकिन प्रारब्ध भी तो हमारे द्वारा ही निर्मित है इसलिए पहेले अपने अंदर देखे की क्या हमारे आचरण में त्रुटी है फिर अपने को ही सुधारने का प्रयत्न करे | इसके पश्चात् जो भी परिणाम हो uske अनुसार ही जीवन की शैली को बनाये |
वास्तव में हम जिसे जीवन जीना कहते है वो जीवन हमने जिया नहीं वो तो एक स्वप्न था और स्वप्न तभी आते है जन हम निंद्रा में होते है |
जीवन को जीने और जानने के लिए जागना आवशयक है जो जागा नहीं वह जीने के भ्रम में होता है. और भ्रम से जीवन नहीं व्यतित होता है | सब कुछ हमारे ही पास है लेकिन हम कुछ देख नहीं पाते है कारण है जीवनरूपी शीशे पर धूल सी जमी है उसे ही तो हटाना है तभी तो सत्य और असत्य का हमे ज्ञान होगा और विचारो में परिवर्तन आएगा और हम नीचे से ऊपर की ओर जायेगे | सारा ज्ञान का धन हमारे ही पास है बस एक चाभी की आवशयकता है | जैसे एक बार एक भिखारी रोज एक ही जगह पर बैठकर भीख मांगता था बेचारे को लोग कुछ दे देते थे दया भाव से वो भी जैसे तैसे अपना जीवन काट रहा था एक दिन वो बीमार हो गया और कुछ दिन बाद उसकी मित्यु हो गयी उस के पास तो कुछ भी नहीं था लोगो ने कुछ पैसे जोडकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया | कुछ समय बाद वहां कुछ निर्माण होने लगा और खुदाई शुरू हो गयी तो उसी जगह पर जहाँ फकीर बैठता था वहां बहुत बड़ा खजाना मिला | लेकिन उसके भाग्य में तो भीखारी ही रहेना लिखा था तो खजाने पे बस बैठा ही रहा उसी तरह हम लोग भी है सब जानते है की जीवन का सत्य क्या है लेकिन आँखें नहीं खोल रहे है की सत्य को पहचाने |
यैसी ही स्थिति में क्या हेर एक मनुष्य नहीं है ? पर क्या वो भूले नहीं कर रहा है और जीवन में लूट नहीं रहा है ? सम्पति से नहीं वरन अपने जीवन के मधुर संगीत से लूट रहा है | एक दिन मेरी एक मित्र ने मुझसे पुछा की जीवन में अब क्या बचा है मैंने , की क्यों अभी गया ही क्या है अपनी आत्मा के मधुर संगीत को बचा लो अगर ये नहीं बचा तो सब कुछ समाप्त होने की दिशा में चला जायेगा | ये हमको स्मरण रखना चाहिए की स्वयं के संगीत से बढकर कोई सम्पति नहीं है |
हम भी उसी भिखारी की तरह है अपनी प्रसन्ता के लिए दूसरो पर निर्भर रहते है क्यों? हम क्यों ये कहते है की दूसरो को भी हमारी बात पसंद आये और जब वो हमारी प्रशंसा करे तो हम प्रसन्न हो जाए | यहाँ दो बाते सामने आती है पहली ये की हम ही आस में बैठे है और दूसरी ये की हम परोछ रूप से दुसरे का व्यवहार निष्चित कर रहे है ये दोनों ही बाते सर्वदा अनुचित है | हमे ये सोचना चाहिए की हम अपने ही अंदर छुपी संपदा को बहार लाये और दूसरो से कोई अपेक्छा न करे क्योकि जहाँ आशा होती है वहीँ निराशा भी होती है और जब निराशा होती है तो दुःख और हताशा भी होती है | तो बस एक भाव होना चाहिए की हम ही सम्पुर्ण है | हमारे भाव , विचार और कर्म .......इन तीनो की संधि ही हमें निर्मित करती है | जीवन हमें बहुत से अवसर देता है अपने को जानने के लिए लकिन अगायांताव्श हम उसे गवां देते है यही भूल हम बार बार करते है | हमको एक बात सदा याद रखनी चाहिए ये मानव जीवन अनमोल है किसी कारण से हमने जनम लिया है इसलिए ..............
योगस्थ कुरु कर्मादी
योग में स्थिर होकर बस कर्म करते रहो जीवन अपनी सही दिशा स्वयं ही पा लेगा | हमारा जीवन देहरी पे रखे दीपक के सामान होना चाहिए जो अंदर और बहार सामान रूप से प्रकाश करता है और अपना संतुलन बनाये रखता है | यही सही मार्ग है यैसा ही हमारे शास्त्र हमे सिखाते है |
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Sunday 20 November 2011

प्रार्थना से प्रेम की ओर
प्रार्थना की है ? प्रेम और समर्प्रण ...........और जहाँ प्रेम नहीं है वहां प्रार्थना हो ही नहीं सकती है | प्रेम संसार की सबसे श्रेठ वस्तु है क्योकि ये तो सत्य का अंग है | प्रार्थना का कोई एक ढांचा नहीं होता है ये तो ह्रदय से निकलने वाली एक भावना है जो अंकुर की तरह फूटती है इसके लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता है | हम कब और कहाँ प्रेम से प्रेरित हो जाते है ये पता नही चलता है |
जीवन एक कला है मनुष्य एक कलाकार है और प्रेम एक रंग है | जिसने जितना प्रेम का रंग भर लिया उसका जीवन उतना ही प्रेममय हो जाता है | हम जैसा चाहे अपना जीवन वैसा ही बना सकते है बस इतना याद रखना होता है मनुष्य बना बनाया पैदा नहीं होता है | जन्म से तो हम मिटटी की तरह होते है उसे जैसा चाहो रूप दे दो | उसे अपने को ही जनम देना होता है और यही पे हमारा मनुष्य होने का दायित्व बड जाता है | हम अपने को एक सुंदर स्वरूप में देखना चाहते है | लेकिन डरते है किससे ? हम अपने अंदर छुपे हुए नकारात्मक विचारो से ही डरते है ये डर क्यों होता है क्योकि हम अपने जन्मदाता पे पूर्ण समर्पण का भाव नहीं रखते है और यही हमारी सबसे बड़ी भूल होती है | एक बार पूर्ण समर्पित भाव से इश्वर की शरण में जा केर देखो इतना प्रेम का सागर दिखेगा की प्रार्थना अपने आप ही बन जाएगी |
मनुष्य अपने अंदर अथाह प्रेम की सम्भावनाये लिए हुए है जैसे एक बीज में पूरा विराट व्रक्ष समाया होता है और अगर वो बीज ही नष्ट हो जाए तो क्या होगा उस वृक्ष का पूरा वजूद ही समाप्त हो जायेगा उसी तरह अगर हम अपने भीतर छुपे हुए प्रेम को बाहर नहीं आने देगे तो हम एक प्रेममय वातावरण को बनने ही नहीं देगे और जीवन की एक अमूल्य निधि से वंचित हो जायेगे और जीवन का प्रेम रस सूख जायेगा | प्रेम तो वो रस है जो जीवन रुपी बेल को सीचता है और संसार को एक अनोखे रंग में रंग देता है | प्रार्थना किसी की भी हो सकती है बस उसमे समपर्ण की भावना होनी चाहिए |
यही सुखी और सम्पूर्ण जीवन का मूल मंत्र है | प्रेम ही एक येसा धन है जो बाटने से कभी कम नहीं होता है | आप जितना बाटोगे उतना ही बढ के आपको मिलेगा | जो प्रेम से जीने की कला नहीं जानता है वह तो मर्त्य के सामान होता है |

Friday 18 November 2011

 
                                                                                            मै कौन  हूँ 
             मै  कौन हूँ ? हम कभी ये प्रश्न समझ ही नहीं पाते है और शायद जीवन में इससे जयादा  महत्व किसी  बात का  नहीं  है की हमने  अपने को पूरी तरह जाना ही नहीं और अपनी अंतरात्मा को भी नहीं पहचान पाते है |  अंतरात्मा शांति चहेती है पर हम जो करते है उससे अशांति बदती है | शांति का आरंभ वहासे  है जहा की महत्वाकांक्षा का अंत  होता है | सत्य को जानना ही   सबसे बड़ी बात है |  सत्य को जानकर उसकी अनुभूति करो और तब किसी भी बात का त्याग धीरे धीरे नहीं करना पड़ता है सत्य की अनुभूति ही त्याग बन जाती है | अज्ञान हमको बहुत से रास्ते पे ले जाता है पर ज्ञान का एक ही कदम हमको जीवन के लक्ष्य तक पंहुचा देता है |                                  जीवन का आनंद जीने वाले की दृष्टि में होता है | आनंद तो हेर जगह ही है पर अपने अंदर देखो और जान लो की सारा सुख हम अपने ही अंदर लिए बैठे है | बस हम सही मार्ग का चयन नहीं केर पा रहे है और इसी को भटकाव कहते है|  जीवन के चरम  दो लक्ष्य है .........स्वयं  को और सत्य को पाना जो ये याद रखता है वो सदा अतृप्त रहता है और वो फिर तृप्ति की खोज में लगा रहता है |  खोज में लगा व्यक्ति सदा जगा ही रहेगा और जो जगा रहेगा वही कुछ ज्ञान पायेगा |  अन्धकार  से भरी रात में यदि एक दीपक भी जलता हो वो समय दूर नहीं होता है जब पूरा जीवन ही प्रकाशमय हो जायेगा |
                                 चित की सदा सफाई करनी चाहिए ये अत्यंत आवश्यक है मन के साफ़ रहने से ही हम पुरानी और कडवी बातो को भूल जाते है और अपने मन को सत्य की खोज में लगाते है | बूँद बूँद से सागर भरता है और षड षड से ही जीवन बनता है इसलिए जो बूँद की महिमा जान लेता है वो जीवन के हर षड को जान लेता है |   जीवन में [ मै ]  से बड़ी भूल कोई नहीं है जो इस अवरोध को पार नहीं केर पाते है वो सदा पीछे छूट जाते है |
                                            एक दिन किसी ने मुझेसे पुछा की क्या बचाया जा सकता है तो मुझे बहुत हसी आई तो उसने फिर पुछा आप हस क्यों रही है मैंने कहा की बचाने को अब बस एक ही चीज़ बची है उसने पुछा क्या ................तो मैंने कहा की अपनी आत्मा और उसका संगीत |  मेरा उतर शायद उसे भी उचित लगा
                              ये याद रखना चाहिए जो कुछ बाहरसे मिलता है उसे अपना समझना भूल है स्वयम का वही है जो अंदर से ही मिलता है और वो है अंदर का प्रकाश और अंदर से मिला प्रेम | प्रेम ही आनंद है और यही आनंद इस्थाई है |  यही जीवन सत्य भी है |  सदा अपने पे भरोसा करो अपनी ही खोज करो |जिसने अपना मन जान लिया उसने अपने को पहचान लिया |
                                                               || जिन प्रेम कियो तिन प्रभू पायो ||
 
 
 
 
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Monday 14 November 2011

                                                                             रुका  हुआ फैसला                                          
   हम जिन्दगी  में हर कदम  पे इतना  क्यों सोचते  और  विचारते है ?  इस सोच  के आधार  पर ही  हम आगे  भविष्य  की योजनाये  बनाते है और उन्ही  योजनाओं को एक रूप देने के लिए प्रयत्न करने लगते है 1 लेकिन क्या यैसा संभव हो पता है ..............शायद  नहीं 1 फिर  यैसी आपा धापी क्यों ? हम जीवन की एक दौड़ में शामिल हो जाते है और जीवन में दिशाहीन होकर रह जाते है जब  हम रुकते है तो पता चलता है की सब बाते और रिश्ते बेमानी थे 1 हाथ तो दोनों खाली है इस भाग दौड़ में क्या पाया और क्या खोया इसका पता ही नहीं चला और पूरा जीवन यैसे ही बीत गया , कितनी ऋतुये आई और चली गयी कितने बसंत बीत गए अचानक एक दिन विराम सा लग गया और हम तब जीवन की व्याख्या करते है हानि और लाभ तब पाया की पाया तो कुछ नहीं बस देते ही देते जीवन बीत गया अपने जीवन की कोई दिशा सही नहीं मिली 1 तब लगा की अब बाकी जीवन को एक लक्ष्य मिलना चाहिए 1
                                       अपने मन के अंदर तो देखे ........वहा एक प्रकाश है जो शायद दूसरो का जीवन प्रकाशित केर सके 1 वो एक नई रौशनी थी जो आत्म मंथन से निकली थी बस यही से जीवन को एक आधार मिल गया 1 जीवन तो सभी जीते है अपने लिए और यही काम पशु भी करते है तो हमको तो ईश्वर  ने  बुधि और ज्ञान दोनों ही दिया है तो हमको इसका पूरा उपयोग करना चाहिए 1 हमको वो सब करना चाहिए जिससे हमारे आस पास के लोगो को सुख और प्रस्स्नता मिले  जिससे हमारे अंदर के मनुष्य को आत्मिक सुख मिले और एक हम एक अनोखे आनंद का अनुभव करे 1
 
 
 
 
 
 

Thursday 10 November 2011

LIFE again

     I  am certain that i have been here as i am now a thousand times before, and i hope to to return a thousand times......................Goethe.
                           From time to time  we see how destiny works .when we think we have completed our duties  of life god has given to us .Something new comes again and we again  start a fresh  life to fulfill that new job given to us by God . this the system of life . we just can't decide anything it is our soul  who decieds what more hs to be done .
                                         It means if we are here on earth then there is some purpose behind it . our past life ........that we lived future will come but what we do in this life will influence our lives to come .The soul is immortal .we ask many questions about  life like ........fear ,death ,old age but why fear for this ?
 in fact what is there to loose ................nothing . only the body because the soul is always there. jsut see the unity of God .......rest will follow . life just goes on again and again .