अधूरा पूरब - अधूरा पश्चिम
एक अन्धकार भरी रात में एक युवक जंगल में राह भटक गया लेकिन वो रुका नहीं चलता रहा काफी दूर उसे कुछ प्रकाश दिखाई दिया धीरे धीरे वो वहां पंहुचा तो एक कुटिया दिखाई दी उसने दरवाजे पे खटखटाया तो अंदर से आवाज आई की कौन है युवक ने कहा की ' मै ' हूँ तो अंदर फिर पूछा की मै कौन युवक ने फिर कहा की मै हूँ इतने में एक साधू दरवाजा खोलकर बाहर आया उसने कहा युवक से कहा की तुम कौन हो उसने कहा की मै राह भटका हुआ एक राहगीर हूँ साधू ने कहा की राहगीर तो हम सब है और तुम तो सही अर्थ में राह भूल गए ही तभी तो अपने को ही 'मै ' कह रहे हो जबकि ' मै ' कहने का अधिकार केवल परमात्मा को ही है | इस बात को सुनकर वो युवक बोला की क्या आप मुझे अपना शिष्य बनायेगे ? साधू ने हस कर कहा , की ठीक है लेकिन यहाँ तुम्हे क्या मिलेगा ? युवक बोला शायद जीवन का कुछ अनुभव ही मिलेगा | साधू ने कहा की ठीक है जैसे तुम्हारी इच्छा | इसके बाद वो युवक साधू से बोला की मुझमे बहुत अवगुण है मै आपको पहले ही बता देता हूँ | साधू ने बड़ी सरलता से कहा की ठीक है परन्तु मेरे सामने कुछ मत करना | इसके कुछ दिनों के बाद एक दिन साधू ने युवक से पूछा की तुम्हारे अवगुणों का क्या हाल है ? युवक ने उत्तर दिया की जब मै कोई गलत काम करने लगता हूँ आप की शक्ल मेरे सामने आ जाती है और मै रुक जाता हूँ | इस प्रकार धीरे - धीरे वो युवक सुधरने लगा और एक दिन साधू ने उससे कहा की अब तुम अपने जीवन में सही मार्ग पे जा सकते हो यैसा मुझे प्रतीत हो रहा है | तो ये बात है एक युवक के बारे में जो जीवन में भटक कर सही दिशा पे आ गया क्योकि उसको कोई सही मार्ग दर्शक मिल गया और साधू के ज्ञान ने उसका जीवन ही बदल दिया | साधू ने युवक से कहा की तुममे अवगुण नहीं थे तुम बस अपने कर्तव्य के प्रति सचेत नहीं थे | तुम दिशाहीन थे मैंने तो बस तुम्हे एक मार्ग दिखा | इस घटना से ये पता चलता है की अगर जीवन में कोई कभी भटक जाए तो उसे एकदम नकार नहीं देना चाहिए वरन उसको मानसिक रूप से सहारा देकर समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान दिलवाना चाहिए |
यही बात वर्तमान परिवेश में लोग भूलते जा रहे है की मानव जीवन अनमोल है कोई अकारण ही जनम नहीं लेता है सब किसी न किसी उद्देश्य से इस धरती पे आये है कोई सही कार्य के लिया कोई गलत के लिया क्योकि संसार का संतुलन भी यैसे ही बना है | क्योकि मनुष्य जीवन सकारात्मक और नकारात्मक
योग की संधि से ही बना है | ये जीवन एक पवित्र यात्रा है ........... पवित्र इसलिए क्योकि ये परमात्मा का ही अंश है हमारे भीतर जो हमको जीवन प्रदान करता है | लेकिन आज जो बड़ी समस्या है हमारे सामने वो है नयी पीढ़ी का अपना नैतिक मूल्यों का ना पहचानना या उनको अपनी जीवन शैली में ना उपयोग करना | ये एक तरह का असंतुलन जन्म ले रहा है जो भारतीय समाज के लिए बहुत घातक सिद्ध हो रहा है | यैसा क्यों हो रहा है कोई तो कारण है ही ? क्योकि जब तक कारण ना पता लगे
तो उसका निवारण कैसे संभव है | भारत सदा से ही एक संस्कृत प्रधान देश रहा है लेकिन गत कुछ वर्षो से हमारे रहन - सहन , शिक्षा , विचार में बहुत परिवर्तन आया है जिस के कारण हमारी युवा पीड़ी अपने संस्कारों को भूलती जा रही है और अगर हम धयान दे तो पायेगे की पशचमी सभ्यता का काफी प्रभाव दिखाई दे रहा है जो की हमारे संस्कारों से बहुत भिन्न है तो ये क्या है यही हमारी मूल समस्या है | हमारी शिक्षा में भी बहुत बदलाव आया है जिसके कारण हमारी शिक्षा आजीविका के लिए तो सम्पूर्ण है पर उसमे ज्ञान और भारतीय दर्शन की कमी है | हम अपने चौमुखी विकास से बंचित होते जा रहे है |
आकांक्षाये अनुचित नहीं है बल्कि गहरी आकांक्षाये स्वयं में परिवर्तन लाती है और स्वयं का निरक्षण परिवर्तन के लिए गहरी आकांशा पैदा करता है | सयंम चाहिए ........थोड़े समय में अधिक से अधिक पाने की लालसा हमको व्याकुल कर देती है और हम सही मार्ग से भटक जाते है| यही से असंतुलन की उत्पत्ति होती है | संतुलित व्यक्ति ही समाज में अपना सकारात्मक योगदान दे सकता है और एक शसक्त राष्ट्र की नीव बनाता है लेकिन आज तो परिवार का ही रूप छोटा होता जा रहा है क्योकि कर्मभूमि अलग है और जन्मभूमि कही और है | समय का आभाव होता जा रहा है लोग बहुत दूर दूर जा कर अपनी सुविधा के अनुसार काम करते है यैसे में पूरे परिवार को लेकर नहीं चल सकते है लेकिन इसका प्रभाव पूरे परिवार पे पड़ता है समय और सयम के अभाव में प्रेम ,आदर , समर्पण सारी भावनाए लुप्त होती जा रही है लेकिन इससे नयी पीड़ी एक मानसिक तनाव में रहती है जिसका असर उसके वयवहार पर साफ़ दिखाई देता है | मन से भारतीय और जीवन शैली से विदेशी तो यहाँ विचारो की संधि का सर्वथा आभाव बना रहता है | आवाशाक्ताये बढ़ाना तो बहुत सरल है फिर उसके लिए संसाधन भी जुटाना पड़ता है तो पति और पत्नी दोनों काम करते है यैसे में छोटे बच्चो का भविष्य बहुत चिंता का विषय बन जाता है | जिन बच्चो को परिवार का प्यार मिलना चाहिए वो घर में काम करने वाले सहायको के साथ बड़े होते है | छोटी छोटी कहानियो का स्थान कार्टून के काल्पनिक ,हिंसात्मक चरित्रों ने ले लिया है | कल्पनालोक से दूर एक यथार्थ के सच की दुनिया में उनका पालन पोषण होने लगता है | प्रेम की रस की धार वो नहीं जान पाते है |
ये एक बदलाव की आंधी है |लेकिन आंधी जब आती है तो वो अपने साथ धुल और एक तेज गति लाती है जो बहुत कुछ अपने साथ ले जाती है बसे बसाए घरो को उजाड़ देती है क्योकि आंधी का कोई निश्चित गंतव्य नहीं होता है लेकिन हम लोग जो अनुभव कर रही है वो है सांस्कृतिक आंधी जिसमे ममता ,आदर, प्रेम ,ज्ञान ,समभाव सब कुछ उड़ा जा रहा है ये कब और कैसे रुकेगी किसी को नहीं मालूम है |हम मूक दर्शक की भांति सब देख रहे है | इस समय मुझे महाकवि नीरज जी की वो पंक्ति याद आ रही है ...........
कारंवा गुजर गया गुबार देखते रहे ..
ये भी सच है की हम आर्थिक रूप से तो सशक्त हो रहे है पर सांस्कृतिक रूप से कंगाल हो रहे है | आज लोग धयान ,योग विपसना सब तरह की बातो का सहारा लेने लगे है | आत्म - परिवर्तन की बहुत आवशयकता है | जीवन उतना ही ऊंचा होता है जितना की गहरा हो | जो ऊंचा तो होना चाहते पर जीवन की गहराई नहीं समझना चाहते है उनका असफल होना सुनिश्चित होता है | स्मरण रहे की जीवन में बिना मूल्य के कुछ नहीं मिलता है | हम क्या करते है ये नहीं जरूरी है कैसे करते है ये बहुत जरूरी है | जो अपने जीवन में कुछ नहीं कर पाते है वो आलोचक बन जाते है | भागवत की ये पंक्ति शायद वर्तमान काल के लिए बिलकुल सही है ......
एक अन्धकार भरी रात में एक युवक जंगल में राह भटक गया लेकिन वो रुका नहीं चलता रहा काफी दूर उसे कुछ प्रकाश दिखाई दिया धीरे धीरे वो वहां पंहुचा तो एक कुटिया दिखाई दी उसने दरवाजे पे खटखटाया तो अंदर से आवाज आई की कौन है युवक ने कहा की ' मै ' हूँ तो अंदर फिर पूछा की मै कौन युवक ने फिर कहा की मै हूँ इतने में एक साधू दरवाजा खोलकर बाहर आया उसने कहा युवक से कहा की तुम कौन हो उसने कहा की मै राह भटका हुआ एक राहगीर हूँ साधू ने कहा की राहगीर तो हम सब है और तुम तो सही अर्थ में राह भूल गए ही तभी तो अपने को ही 'मै ' कह रहे हो जबकि ' मै ' कहने का अधिकार केवल परमात्मा को ही है | इस बात को सुनकर वो युवक बोला की क्या आप मुझे अपना शिष्य बनायेगे ? साधू ने हस कर कहा , की ठीक है लेकिन यहाँ तुम्हे क्या मिलेगा ? युवक बोला शायद जीवन का कुछ अनुभव ही मिलेगा | साधू ने कहा की ठीक है जैसे तुम्हारी इच्छा | इसके बाद वो युवक साधू से बोला की मुझमे बहुत अवगुण है मै आपको पहले ही बता देता हूँ | साधू ने बड़ी सरलता से कहा की ठीक है परन्तु मेरे सामने कुछ मत करना | इसके कुछ दिनों के बाद एक दिन साधू ने युवक से पूछा की तुम्हारे अवगुणों का क्या हाल है ? युवक ने उत्तर दिया की जब मै कोई गलत काम करने लगता हूँ आप की शक्ल मेरे सामने आ जाती है और मै रुक जाता हूँ | इस प्रकार धीरे - धीरे वो युवक सुधरने लगा और एक दिन साधू ने उससे कहा की अब तुम अपने जीवन में सही मार्ग पे जा सकते हो यैसा मुझे प्रतीत हो रहा है | तो ये बात है एक युवक के बारे में जो जीवन में भटक कर सही दिशा पे आ गया क्योकि उसको कोई सही मार्ग दर्शक मिल गया और साधू के ज्ञान ने उसका जीवन ही बदल दिया | साधू ने युवक से कहा की तुममे अवगुण नहीं थे तुम बस अपने कर्तव्य के प्रति सचेत नहीं थे | तुम दिशाहीन थे मैंने तो बस तुम्हे एक मार्ग दिखा | इस घटना से ये पता चलता है की अगर जीवन में कोई कभी भटक जाए तो उसे एकदम नकार नहीं देना चाहिए वरन उसको मानसिक रूप से सहारा देकर समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान दिलवाना चाहिए |
यही बात वर्तमान परिवेश में लोग भूलते जा रहे है की मानव जीवन अनमोल है कोई अकारण ही जनम नहीं लेता है सब किसी न किसी उद्देश्य से इस धरती पे आये है कोई सही कार्य के लिया कोई गलत के लिया क्योकि संसार का संतुलन भी यैसे ही बना है | क्योकि मनुष्य जीवन सकारात्मक और नकारात्मक
योग की संधि से ही बना है | ये जीवन एक पवित्र यात्रा है ........... पवित्र इसलिए क्योकि ये परमात्मा का ही अंश है हमारे भीतर जो हमको जीवन प्रदान करता है | लेकिन आज जो बड़ी समस्या है हमारे सामने वो है नयी पीढ़ी का अपना नैतिक मूल्यों का ना पहचानना या उनको अपनी जीवन शैली में ना उपयोग करना | ये एक तरह का असंतुलन जन्म ले रहा है जो भारतीय समाज के लिए बहुत घातक सिद्ध हो रहा है | यैसा क्यों हो रहा है कोई तो कारण है ही ? क्योकि जब तक कारण ना पता लगे
तो उसका निवारण कैसे संभव है | भारत सदा से ही एक संस्कृत प्रधान देश रहा है लेकिन गत कुछ वर्षो से हमारे रहन - सहन , शिक्षा , विचार में बहुत परिवर्तन आया है जिस के कारण हमारी युवा पीड़ी अपने संस्कारों को भूलती जा रही है और अगर हम धयान दे तो पायेगे की पशचमी सभ्यता का काफी प्रभाव दिखाई दे रहा है जो की हमारे संस्कारों से बहुत भिन्न है तो ये क्या है यही हमारी मूल समस्या है | हमारी शिक्षा में भी बहुत बदलाव आया है जिसके कारण हमारी शिक्षा आजीविका के लिए तो सम्पूर्ण है पर उसमे ज्ञान और भारतीय दर्शन की कमी है | हम अपने चौमुखी विकास से बंचित होते जा रहे है |
आकांक्षाये अनुचित नहीं है बल्कि गहरी आकांक्षाये स्वयं में परिवर्तन लाती है और स्वयं का निरक्षण परिवर्तन के लिए गहरी आकांशा पैदा करता है | सयंम चाहिए ........थोड़े समय में अधिक से अधिक पाने की लालसा हमको व्याकुल कर देती है और हम सही मार्ग से भटक जाते है| यही से असंतुलन की उत्पत्ति होती है | संतुलित व्यक्ति ही समाज में अपना सकारात्मक योगदान दे सकता है और एक शसक्त राष्ट्र की नीव बनाता है लेकिन आज तो परिवार का ही रूप छोटा होता जा रहा है क्योकि कर्मभूमि अलग है और जन्मभूमि कही और है | समय का आभाव होता जा रहा है लोग बहुत दूर दूर जा कर अपनी सुविधा के अनुसार काम करते है यैसे में पूरे परिवार को लेकर नहीं चल सकते है लेकिन इसका प्रभाव पूरे परिवार पे पड़ता है समय और सयम के अभाव में प्रेम ,आदर , समर्पण सारी भावनाए लुप्त होती जा रही है लेकिन इससे नयी पीड़ी एक मानसिक तनाव में रहती है जिसका असर उसके वयवहार पर साफ़ दिखाई देता है | मन से भारतीय और जीवन शैली से विदेशी तो यहाँ विचारो की संधि का सर्वथा आभाव बना रहता है | आवाशाक्ताये बढ़ाना तो बहुत सरल है फिर उसके लिए संसाधन भी जुटाना पड़ता है तो पति और पत्नी दोनों काम करते है यैसे में छोटे बच्चो का भविष्य बहुत चिंता का विषय बन जाता है | जिन बच्चो को परिवार का प्यार मिलना चाहिए वो घर में काम करने वाले सहायको के साथ बड़े होते है | छोटी छोटी कहानियो का स्थान कार्टून के काल्पनिक ,हिंसात्मक चरित्रों ने ले लिया है | कल्पनालोक से दूर एक यथार्थ के सच की दुनिया में उनका पालन पोषण होने लगता है | प्रेम की रस की धार वो नहीं जान पाते है |
ये एक बदलाव की आंधी है |लेकिन आंधी जब आती है तो वो अपने साथ धुल और एक तेज गति लाती है जो बहुत कुछ अपने साथ ले जाती है बसे बसाए घरो को उजाड़ देती है क्योकि आंधी का कोई निश्चित गंतव्य नहीं होता है लेकिन हम लोग जो अनुभव कर रही है वो है सांस्कृतिक आंधी जिसमे ममता ,आदर, प्रेम ,ज्ञान ,समभाव सब कुछ उड़ा जा रहा है ये कब और कैसे रुकेगी किसी को नहीं मालूम है |हम मूक दर्शक की भांति सब देख रहे है | इस समय मुझे महाकवि नीरज जी की वो पंक्ति याद आ रही है ...........
कारंवा गुजर गया गुबार देखते रहे ..
ये भी सच है की हम आर्थिक रूप से तो सशक्त हो रहे है पर सांस्कृतिक रूप से कंगाल हो रहे है | आज लोग धयान ,योग विपसना सब तरह की बातो का सहारा लेने लगे है | आत्म - परिवर्तन की बहुत आवशयकता है | जीवन उतना ही ऊंचा होता है जितना की गहरा हो | जो ऊंचा तो होना चाहते पर जीवन की गहराई नहीं समझना चाहते है उनका असफल होना सुनिश्चित होता है | स्मरण रहे की जीवन में बिना मूल्य के कुछ नहीं मिलता है | हम क्या करते है ये नहीं जरूरी है कैसे करते है ये बहुत जरूरी है | जो अपने जीवन में कुछ नहीं कर पाते है वो आलोचक बन जाते है | भागवत की ये पंक्ति शायद वर्तमान काल के लिए बिलकुल सही है ......
महा - महा यगीश भी माया के वश में हुए
जो रचती जड़ मात्र में खेल निराले नित नए
अर्थात .............माया को मैंने जीत लिया है ये कहने का दुसाहस कभी नहीं करना चाहिए क्योकि माया से तो ज्ञानी ,ध्यानी ,मुनीश्वर और सिद्ध भी नहीं बच पाए है क्योकि माया की मंत्रा से कोई नहीं बच सकता है | माया भी तो ईश्वर की बनायीं रचनाओं में से एक है | लेकिन ईश्वर ने मनुष्य को ही बुद्धि और विवेक दिया है की अपने निर्णय खुद करो और अपनी प्रज्ञा का सदोपयोग करो | अंत में यही एक बात आती है की आज के युवा न तो पूरी तरह से भारतीय हो पा रहे है और न पूर्ण रूप से पशिमी सभ्यता को अपना पा रहे और इसी का प्रभाव उनको एक त्रिशंकू की स्थिति में ले आया है | अपनी सोच को सयंम और समर्पण से जोड़ने की चेष्टा करे और उसकी संधि से जो भाव निकलेगा वह अलौकिक आनंदमय होगा | ये चिंतन और कर्म का उचित समय है | यही हमको हमारी जड़ो से अलग नहीं होने देगा क्योकि कितना भी बड़ा पेड़ हो जड़ो के बिना नहीं पनप सकता है | बस जड़ो को सींचो सारा पेड़ हरा भरा रहेगा | प्रकृति हमको बहुत सिखाती है | यही हमारी धरोहर है जिसे समय रहते ही बचाना है |
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